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चंद्रशेखर आजाद का प्रारंभिक जीवन
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1914 को मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में हुआ था। इन के सम्मान में अब इस गांव का नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद नगर कर दिया गया है। मुख्य रूप से इनका परिवार उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव से थे लेकिन इनके पिता सीताराम तिवारी ने गांव में अकाल पड़ने के कारण अपने पैतृक संपत्ति और गांव को छोड़कर मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में आकर बसे थे। भाबरा भील जनजाति इलाका है और इसी कारण आजाद का बचपन भील जातियों के बालकों के साथ बिता जिनके साथ उन्होंने धनुर्विद्या और निशानेबाजी सीखने का और करने का अच्छा अवसर मिला। चंद्रशेखर आजाद बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे पढ़ाई से ज्यादा उनका मन अन्य गतिविधियों जैसे खेल-कूद एवं धनुर्विद्या और निशानेबाजी में लगा रहता था। इसके साथ ही जालियांवाला बाग हत्याकांड हिंदुस्तान के हर हिंदुस्तानी के साथ-साथ बालक चंद्रशेखर के मन को भी हिला कर रख दी थी। जिसके बाद उन्होंने ईट का जवाब पत्थर से देने की ठानी। Free Daily Current Affair Quiz-Attempt Now with exciting prize
चंद्रशेखर आजाद के जीवन में क्रांति की शुरुआत
जालियांवाला बाग कांड के बाद चंद्रशेखर आजाद के जीवन में एक नया ही बदलाव आया और उनका मानना था कि आजादी बात से नहीं बंदूक से मिलेगी यह बात अपने दिमाग में ठान ली थी। उस दौरान इनके इस सोच के साथ-साथ महात्मा गांधी और कांग्रेस का अहिंसात्मक आंदोलन काफी प्रगति पर था और पूरे देश में उन्हें सभी समर्थन कर रहे थे। ऐसे में हिंसात्मक गतिविधियों का साथ देने वाले कम ही थे। चंद्रशेखर आजाद ने महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए अहिंसा असहयोग आंदोलन में भाग लिया और सजा काटी इसके बाद चौरा - चौरी कांड के बाद जब आंदोलन वापस लिया गया तो आजाद का कांग्रेस से मन उठ गया और चंद्रशेखर आजाद ने बनारस की ओर अपनी कदम बढ़ाई। उन दिनों बनारस क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। बनारस जाने के बाद उनकी मुलाकात महान क्रांतिकारी मन्मथ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुआ। आजाद इन नेताओं से इतने प्रभावित हुए कि वे क्रांतिकारी दल हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ के सदस्य बन गए। इस दल ने शुरुआत में गांव के उन घरों को लूटने की कोशिश कि जो गरीबों का खून चूस कर पैसा इकट्ठा कर रहे थे। धीरे से इन्हें समझ आया कि अपने लोगों को तकलीफ पहुंचा कर वे लोगों की नजर में गिर सकते हैं और भविष्य में उनके लिए यह खतरा पैदा कर सकता है। ऐसे में हिंदुस्तान प्रजातंत्र दल ने अपनी गतिविधियों को बदला और उनका उद्देश्य केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचाना बन गया। इस दल ने देश में अपने आपको परिचित करवाने के लिए अपना मशहूर पैम्फलेट द रिवॉल्यूशनरी पब्लिश करवाया। इसके बाद उस घटना को अंजाम दिया जो भारत के इतिहास के पन्नों में आज भी सुनहरे अक्षरों में लिखा है और वह है-काकोरी कांड. सभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए इस ऐप से करें फ्री में प्रिपरेशन - Safalta Application
काकोरी कांड और commander-in-chief बनने तक का सफर
स्वतंत्रता की लड़ाई में काकोरी कांड में कौन परिचित नहीं है। जिसमें देश के महान क्रांतिकारियों जैसे राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी गई थी। दल के 10 सदस्यों ने इस लूट को अंजाम दिया और अंग्रेजों के खजाने को लूट कर उनके सामने चुनौती रखी थी। इस घटना के बाद दल के ज्यादातर सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस कांड के बाद दल बिखर गया जिसके बाद चंद्रशेखर आजाद के सामने एक बार फिर दल को इकट्ठा करने का संकट सामने आया। अंग्रेज सरकार के लगातार प्रयासों के बावजूद भी वे आजाद को पकड़ने में असफल रहे। इसके बाद छुपते छुपाते आजाद दिल्ली पहुंचे जहां वे फिरोजशाह कोटला मैदान में सभी बचे हुए क्रांतिकारियों की एक गुप्त सभा आयोजित की। इस सभा में आजाद के अलावा महान क्रांतिकारी भगत सिंह भी शामिल हुए थे जहां यह तय किया गया कि नए नाम से एक नए दल का गठन किया जाए और क्रांति की लड़ाई को आगे बढ़ाया जाए। नए दया दल का नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया। आजाद को इस दल का commander-in-chief बनाया गया और इस संगठन का एक प्रेरक वाक्य बनाया गया हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला या तो जीत होगी या फिर हमारी मौत यह रखा गया है।
सांडर्स की हत्या और असेंबली में बम घटना के बारे में विस्तार से
दल ने सक्रिय होते ही कुछ ऐसे नए घटनाओं को अंजाम दिया जिससे अंग्रेज सरकार एक बार फिर दल के पीछे पड़ गई। लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या का निश्चय किया और चंद्रशेखर आजाद ने भी उनका समर्थन किया। इसके बाद आयरिश क्रांति से प्रभावित भगत सिंह ने असेंबली में बम फोड़ने का निश्चय किया और आजाद ने एक बार फिर उनका सहयोग किया। इन घटनाओं के बाद अंग्रेज सरकार में इन क्रांतिकारी दल को पकड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। जिसके बाद दल एक बार फिर बिखर गया जिसमें आजाद ने भगत सिंह को छुड़ाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। जब दल के लगभग सभी लोग गिरफ्तार हो चुके थे तब भी आजाद लगातार ब्रिटिश सरकार को चकमा देने में कामयाब रहे।
आजाद की मृत्यु के बारे में
अंग्रेज सरकार ने राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई और आजाद इस कोशिश में थे कि उनकी सजा को किसी ना किसी तरह से कम करवा सके या फिर उम्र कैद में बदल सके। इस प्रयास में वे इलाहाबाद पहुंचे और इस बात की भनक पुलिस को लग गई जिस अल्फ्रेड पार्क में वे ठहरे थे वहां हजारों पुलिस वालों ने आजद सहित उस पार्क को घेर लिया और उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। लेकिन आजाद ने लड़ते हुए शहीद होना उचित समझा। जिसके बाद उनकी अंतिम संस्कार अंग्रेज सरकार ने बिना किसी को सूचित किए कर दिया। लोगों को जब इस बात के बारे में पता चली तो वे सड़कों पर उतर आए थे, जब लोग सड़को पर आए थे तब मानो ऐसा लग रहा था जैसे गंगा जी संगम छोड़कर इलाहाबाद की सड़कों पर आ गई हो। लोगों ने उस पेड़ की पूजा शुरु कर दी जहां चंद्रशेखर आजाद ने अंतिम सांस ली थी। उस दिन पूरी दुनिया ने यह देखा कि भारत में लोग अपने महान क्रांतिकारी को अंतिम विदाई किस तरह से देते हैं।
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