1) संवेदी पेशीय अवस्था ( Sensorimotor Stage) : इस चरण में बच्चा प्रेरक ( मोटर) और परिवर्ती ( रिफ्लेक्स) क्रियाओं के माध्यम से अपने और अपने पर्यावरण के बारे में सीखता हैं। यह अवस्था जन्म से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक होती है।
2) पूर्व परिचालनात्मक या प्राक्संक्रियात्मक अवस्था ( Preoperational stage) : यह अवस्था लगभग तीन से पांच साल की उम्र तक होती है, जब से बच्चा बोलना शुरू करता है। अपने भाषा संबंधी नए ज्ञान का इस्तमाल करते हुए बच्चा वस्तुओ को दर्शाने के लिए संकेतों का इस्तमाल करना शुरू करता है। इस चरण से आरंभ में वह वस्तुओं का मानवीकरण भी करता है। वह अब बेहतर ढंग से इन चीजों और घटनाओं के बारे में सोचने में समक्ष हो जाता है, जो तत्काल मौजूद नहीं हैं।
अध्यापन के दौरान बच्चे की ज्वलंत कल्पनाओं और समय के प्रति उसकी अविकसित समझ को ध्यान में रखना आवश्यक है। तटस्त शब्दों, शरीर की रूप रेखा और छू सकने लायक उपकरण का इस्तेमाल करने से बच्चे के संक्रिय शिक्षण में मदद मिलती है । इनका चिन्तन जीव वाद पर आधारित होता है, अर्थात यह निर्जीव व सजीव सभी वस्तु/ प्राणीयों को जीवित ही मानते हैं।
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3) ठोस सक्रिय की अवस्था ( Concrete Operational Stage) : यह अवस्था लगभग सात से ग्यारह साल के उम्र तक होती है , इंद्रियों से पहचानने योग्य ( concrete), इस चरण के दौरान समायोजन क्षमता में वृद्धि होती है। यह अवस्था लगभग पहली कक्षा से लेकर आरंभिक किशोरावस्था तक मानी जाती है । इसमें बच्चों में अनमने भाव से सोचने और इंद्रियों से पहचानने योग्य या दिखाई देने योग्य घटना के बारे में तर्क संगत निर्णय करने की क्षमता का विकास होता है। इसमें बच्चे को सीखने सिखाने व समझने का मौका देने से मानसिक दृष्टि से उस जानकारी का इस्तेमाल करने में आसानी होती है।
4) औपचारिक परिचालन या संक्रिय अवस्था ( formal Operational Stage) : यह अवस्था लगभग 12 से 19 साल की उम्र तक होती है। यह चरण किशोरावस्था का होता है। इसमें अनुभूति को उसका अंतिम रूप प्रदान करता है। इसमें व्यक्ति को तर्क संगत निर्णय करने के लिए पहचानने योग्य वस्तुओ की जरूरत नहीं पड़ती है। अपनी बात पर वह काल्पनिक और निग्मनात्मक तर्क दे सकता है। किशोर किशोरियों को सीखने पढ़ाने का क्षेत्र काफी विस्तृत हो सकता है क्यों कि वे कई दृष्टिकोणों से कई संभावनाओं पर विचार करने में सक्षम होते हैं।
उनके मतानुसार विकास की एक अनिवार्य स्तिथि संतुलनीकरण है। यह उपर्युक्त सिद्धांतों के मध्य समन्वय स्थापित करता है। इसकी न्यूनता की स्तिथि में किसी भी मानव का विकास संभव नहीं। उनके अनुसार संतुलनीकरण ऐवं स्वःसंचालित प्रगतिशील प्रक्रिया हैं जो किसी व्यक्ति को क्रमशः विकास हेतु अग्रसर करने में सहायक होती है।