Battle of Haifa, क्या है हाइफ़ा की लड़ाई ? जानें कैसे भारतीय जवानों ने इज़राइल के शहर को आज़ाद कराया था

Safalta Experts Published by: Kanchan Pathak Updated Mon, 10 Oct 2022 06:44 PM IST

Highlights

23 सितंबर 1918 का वह दिन इजरायल के लिए सबसे खास और यादगार दिन था.  यह प्रथम विश्व युद्ध का वह समय था जब भारतीय जवानों ने तुर्की सेना के खिलाफ जंग लड़ते हुए इजरायल के हैफा शहर को आजाद कराया था. तब से हीं इजरायल भारतीय सैनिकों की वीरता का लोहा मानता है और उनकी याद में हर साल हैफा दिवस मनाता है.

Source: safalta

Battle of Haifa- हाइफ़ा की लड़ाई 23 सितंबर 1918 में लड़ी गई थी, हाइफ़ा की लड़ाई के समय भारतीय सेना की 15वीं (शाही सेवा) कैवेलरी ब्रिगेड, 5वीं कैवेलरी डिवीजन और डेजर्ट माउंटेड ने अंग्रेजो की तरफ़ से प्रथम विश्व युद्ध के समय ऑटोमन एंपायर के खिलाफ हाइफ़ा और एकर को वापस लेने के लिए लड़ी थी। हाइफ़ा इजरायल के सबसे बड़े समुद्री बंदरगाहों में से एक है जिस वजह से इस बंदरगाह को जितना प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजो के लिए बोहोत जरुरी था। इस जंग में शालिम हुए भारतीय जवानों को याद करने के लिए हर साल 23 सितंबर को हैफा दिवस मनाया जाता है। इसी के साथ इजरायल में भी इजरायली शहर हैफा को आजाद कराने वाले शहीद जवानों को याद करने के लिए हर साल हैफा दिवस का आयोजन किया जाता है।
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जब भारतीय फौज ने मुक्त कराया इजरायली शहर

इतिहास गवाह है कि उस वक्त अगर भारतीय सेना नहीं होती तो कदाचित हैफा शहर को आजाद भी नहीं मिली होती. यह बात कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि इतिहास में दर्ज है कि तब हैफा शहर पर कब्जा जमाने के लिए आधुनिक मशीन गन और तोपों से लैस एक तरफ तुर्की सेना खड़ी थी तो दूसरी तरफ जर्मनी की सेना. जबकि इधर हिंदुस्तानी फौज हैफा को बचाने के लिए मात्र भाले और तलवार पकडे मोर्चा संभाल रही थी. लेकिन आश्चर्य, कि उस भारी जंग के अंत में तुर्कों और जर्मन सेनाओं को अपने मशीन गन और तोप छोड़कर भागना पड़ा था. यह था भारतीय सेना के वीर जवानों का साहस और पराक्रम कि उसने अपनी तलवारें और भालों से तोप और बन्दूक वालों को ऐसा धूल चटाया कि आखिरकार दुश्मन देश की फौज को हैफा से भागना पड़ा.

केवल तलवार और भाले से जीती थी जंग

यह प्रथम विश्व युद्ध के समय की बात है जब तुर्कों की सेना ने इजरायल के हैफा शहर पर कब्जा जमा लिया था. उस दौरान इजरायल और मिस्र में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड में भारत के 150,000 सैनिक अपनी सेवा दे रहे थे. साल 1918 के उस ज़माने में हथियार के नाम पर भारतीय सैनिकों के पास मात्र भाले और तलवार हुआ करते थे तथा ये बहादुर सैनिक घोड़ों पर बैठ कर युद्ध के लिए निकलते थे. तब भारतीय फौज की टुकड़ी में यहाँ की तीन रियासतों जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स के जवान तैनात थे.
 

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हाइफा की लड़ाई

23 सितंबर 1918 को जब इन सैनिकों को हैफा शहर मुक्त को कराने के लिए भेजा गया तब वहाँ प्रथम विश्व युद्ध की एक निर्णायक लड़ाई लड़ी गई थी, इतिहास में इस लड़ाई को हाइफा की लड़ाई के नाम से जाना जाता है. ज्ञातव्य है कि हाइफा की लड़ाई 23 सितंबर 1918 को लड़ी गयी. तब इस लड़ाई में राजपूताने की सेना का नेतृत्व जोधपुर रियासत के सेनापति मेजर दलपत सिंह ने किया था. मेजर दलपत सिंह का जन्म पाली जिले में रावणा राजपूत परिवार में हुआ था. अंग्रेजो ने जब जोधपुर रियासत की सेना को हाइफा पर कब्जा करने के आदेश दिए तो आदेश मिलते हीं सेनापति दलपत सिंह राजस्थानी रणबांकुरो की अपनी सेना को लेकर दुश्मन पर टूट पड़े. लेकिन तभी अंग्रेजो को पता चला की दुश्मन के पास तोप, बंदूके और मशीन गन भी है. तब घोड़ों पर तलवार और भालों से युद्ध लड़ने वाली भारतीय सेना को कमतर समझ कर अंग्रेजो ने जोधपुर रियासत की सेना को वापस लौटने के निर्देश दिए. तब सेनापति दलपत सिंह ने कहा कि हमारे यहाँ वापस लौटने का कोई रिवाज नहीं है. हम रणबाँकुरे जब एक बार रण भूमि में उतर जाते हैं तो इसके बाद या तो जीत हासिल करके आते हैं या फिर वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं. और इस तरह भारतीय सेना के शूरवीर, दुश्मनों की बंदूकों, तोपों और मशीनगनों के सामने अपने छाती ताने परम्परागत युद्ध शैली में बहादुरी से लड़ते रहे. इस लड़ाई में जोधपुर की सेना के करीब नौ सौ सैनिकों ने लड़ते लड़ते युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त किया, परन्तु इस युद्ध के अंतिम नतीज़े ने विश्व में एक ऐसे अमर इतिहास का निर्माण किया जो पहले कभी नहीं हुआ था.
यह केवल बंदूकों, तोपों और मशीनगनों के सामने मात्र तलवार और भालों का युद्ध नहीं बल्कि साहस, दिलेरी और पराक्रम का युद्ध था जिसमें राजपूत विजयी हुए और उन्होंने हाइफा पर कब्जा कर लिया. इस प्रकार चार सौ साल पुराने ओटोमैन साम्राज्य का अंत हुआ.
राठौड़ो की बहादुरी के प्रभावित होकर भारत की ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ़ ने शूरवीर राठौड़ो की बहादुरी को यादगार बनाने के लिए चौराहे पर फ़्लैग-स्टाफ़ हाउस के नाम से अपने लिए एक रिहायसी भवन का निर्माण करवाया. इस चौराहे के बीच एक गोल चक्कर और उसके बीचों बीच एक स्तंभ के किनारे तीन दिशाओं में मुंह किए हुए तीन सैनिकों की मूर्तियाँ लगी हुई हैं.
 
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चर्चा में क्यों

आज यही हैफा शहर फिर से सुर्खियों में है. क्योंकि अडाणी ग्रुप ने हैफा पोर्ट की बोली जीत ली है. अब इस पोर्ट का संचालन अडाणी ग्रुप करेगा. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने जरूसलम से इस खबर की तस्दीक की है. रॉयटर्स ने इजरायली वित्त मंत्रालय के हवाले से बताया है कि हैफा पोर्ट को खरीदने की बोली अडाणी ग्रुप ने जीत ली है. अडाणी और गैडोट मिलकर इस पोर्ट का निजीकरण करेंगे. हैफा इजरायल के सबसे बड़े समुद्री बंदरगाहों में से एक है.