History of Dutch Empire in India: भारत में डचों के उदय का इतिहास और उनके पतन के मुख्य कारण

Safalta Experts Published by: Nikesh Kumar Updated Mon, 21 Feb 2022 04:38 PM IST

Source: Safalta

सन् 1498 में एक पुर्तगाली, वास्को-डी-गामा के भारत आगमन के साथ हीं भारत में यूरोपियों के आगमन का क्रम शुरू हो गया. विदेशियों के आगमन के इस क्रम में पुर्तगालियों के बाद डचों का नाम आता है. हॉलैंड (वर्तमान नीदरलैंड) के लोगों को डच कहा जाता है. ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो डच लोग समुद्री व्यापार में बहुत निपुण थे. डच 17वीं सदी में भारत के मालाबार तट पर आये थे. 1602 में, नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी (डच ईस्ट इंडिया कंपनी) का गठन किया गया था और डच सरकार ने उन्हें भारत सहित ईस्ट इंडीज के अन्य देशों में भी व्यापार करने की अनुमति दी थी.  यदि आप प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और विशेषज्ञ मार्गदर्शन की तलाश कर रहे हैं, तो आप हमारे जनरल अवेयरनेस ई बुक डाउनलोड कर सकते हैं  FREE GK EBook- Download Now.
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डचों का उदय – (Rise of Dutch Empire)

डचों ने 1605 में आंध्र प्रदेश के मसूलीपट्टनम में अपना पहला कारखाना स्थापित किया था. इसके बाद, डचों ने भारत के विभिन्न हिस्सों में भी व्यापारिक केंद्र स्थापित किए. डच सूरत और डच बंगाल की स्थापना क्रमशः 1616 ईस्वी और 1627 ईस्वी में डचों के द्वारा हीं की गयी थी. 1656 ई. में डचों ने सीलोन पर विजय प्राप्त की थी जिसपर पहले पुर्तगालियों का अधिकार था.

डचों ने 1671 ई. में मालाबार तट पर स्थित पुर्तगाली किलों को अपने कब्जे में ले लिया. उन्होंने धीरे-धीरे दक्षिण भारत में अपने पैर जमाने शुरू कर दिए और मद्रास (चेन्नई) के नागपट्टम जिसपर पुर्तगालियों का अधिकार था, पर कब्जा करके एक शक्तिशाली पॉवर बन गए. आर्थिक दृष्टि से, उन्होंने काली मिर्च और मसालों के व्यापार में अपना एकाधिकार स्थापित कर के भारी मुनाफा कमाया. डचों द्वारा मुख्यतः कपास, नील, रेशम, चावल और अफीम आदि भारतीय वस्तुओं का व्यापार किया जाता था.

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डच सिक्के –

डचों ने अपने भारत प्रवास के दौरान सिक्कों की ढलाई में हाथ आजमाया. जैसे-जैसे उनका व्यापार बढ़ता गया, उन्होंने कोचीन, मसूलीपट्टम, नागपट्टम, पांडिचेरी और पुलिकट में टकसालों की स्थापना की. साथ हीं, पुलिकट टकसाल में भगवान वेंकटेश्वर, (भगवान विष्णु) की छवि वाला एक स्वर्ण पैगोडा जारी किया. डचों द्वारा जारी किये गए सभी सिक्के स्थानीय सिक्कों पर आधारित थे.

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डच शक्ति का पतन –

भारतीय उपमहाद्वीप पर डचों की उपस्थिति 1605 ई. से 1825 ई. तक रही. पूर्वी व्यापार में ब्रिटिश शक्ति के उदय ने डचों के व्यावसायिक हितों के लिए एक गंभीर चुनौती पेश की, जिसके कारण उनके बीच खूनी युद्ध हुआ जिसमें ब्रिटिश अपने अधिक संसाधनों की वजह से स्पष्ट विजेता बन कर उभरे थे. 1623 में अंबोयना में डचों द्वारा कुछ अंग्रेजी व्यापारियों की नृशंस हत्या ने स्थिति को और ख़राब कर दिया. जिसके बाद अंग्रेजों ने एक के बाद एक डचों के गढ़ों पर कब्जा कर लिया.

डच-एंग्लो-प्रतिद्वंद्विता के बीच त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा ने 1741 ईस्वी में कोलाचेल की लड़ाई में डच ईस्ट इंडिया कंपनी को एक जबरदस्त झटका दिया, जिससे मालाबार क्षेत्र में डच सत्ता की पूरी रूपरेखा हीं बदल गयी.

अंग्रेजों के साथ संधियाँ और समझौते –

यद्यपि 1814 ईस्वी में एंग्लो-डच संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे, जिसने डच कोरोमंडल और डच बंगाल को डच शासन में बहाल करने की सुविधा प्रदान की, उन्हें फिर से 1824 ईस्वी की एंग्लो-डच संधि के खंड और प्रावधानों के अनुसार ब्रिटिश शासन में वापस कर दिया गया. डचों के लिए यह बाध्यकारी कर दिया गया कि वो 1 मार्च, 1825 ई. तक सारी संपत्ति और प्रतिष्ठानों का हस्तांतरण कर दें. 1825 ई. के मध्य तक भारत में डचों की सभी व्यापारिक चौकियों को जब्त कर लिया गया था. 1667 ई. में दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ. इस समझौते के अंतर्गत ब्रिटिश अपने लेन देन के फार्मूले के आधार पर, डचों के लिए, इंडोनेशिया (जो ब्रिटिशों के अधीन था) से हटने के लिए सहमत हो गए. इसके बदले में, डचों को अंततः इंडोनेशिया में व्यापार करने के लिए भारत से सेवानिवृत्त होना पड़ा.

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